क्षणों में बिखरी एक छोटी-सी यात्रा
बस जैसे ही रुकी, दरवाज़ा खुला, और मैं सड़क पर उतरा —
हवा ने मानो अपने स्पर्श से कहा,
“स्वागत है, तुम्हारी अगली अनुभूति यहाँ प्रतीक्षा कर रही है।”
मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ा और पहली ही दुकान पर रुक गया।
साधारण-सी जगह…
लोहे की उबलती केतली और चाय की सुगंध जो किसी पुरानी याद की तरह मन में उतर रही थी।
मैंने चाय ली।
पहला घूंट —
गर्म, मीठा, और बिल्कुल उसी क्षण में बसा हुआ।
जैसे समय थोड़ी देर के लिए मेरे लिए ठहर गया हो।
चाय पीते हुए मेरी नज़र सड़क पर पड़ी।
लोग आ रहे थे, जा रहे थे।
वाहन उसी निरंतर लय में बह रहे थे,
मानो कोई अदृश्य नदी हो, जिसमें हर इकाई अपनी-अपनी दिशा में यात्रा कर रही है।
मैंने उस दृश्य को देखा…
लेकिन असल में मैंने उसे घटते नहीं, चलते हुए स्क्रीन की तरह देखा।
एक क्षण — व्यक्ति दिखा,
अगले क्षण — वह ओझल।
लेकिन ओझल होने का अर्थ यह नहीं कि वह अस्तित्व से मिट गया।
वह बस मेरी दृष्टि की सीमा से परे चला गया।
और उसी पल मेरे भीतर एक खामोश-सा बोध उठा—
"दृश्य बदलने से अस्तित्व समाप्त नहीं होता।
मेरी दृष्टि सीमित हो सकती है,
लेकिन ब्रह्मांड नहीं।"
अचानक मुझे लगा कि
यह सड़क, यह लोग, यह वाहनों की धारा—
सब एक विशाल, अनंत कैनवास का छोटा-सा हिस्सा हैं,
जिसका आकार
मेरी सोच से भी व्यापक,
मेरी इन्द्रियों से भी दूर,
और मेरी समझ से भी विशाल है।
मैं चाय की आखिरी घूंट ले रहा था।
लेकिन उसके साथ ही
मैं अपने भीतर एक और घूंट भर रहा था—
अनुभूति का।
उस क्षण में,
मैं राहगीर भी था,
दर्शक भी था,
और खुद उसी अनंत दृश्य का एक चलता-फिरता अंश भी।